Monday, July 12, 2010

कडुआ सच

ये घाव मेरे अपनों के दिए है

दुश्मन की तो बात करू क्या

अरमानो की किश्ती लेकर

सागर मंथन को निकला था

मुझको किनारों ने ही डुबोया

मझधारो की बात करू क्या

तरूणाई का रुधिर पिलाकर

मेने जो उपवन सींचा था

भर वसंत में उजाड़ गया वो

पतझर की तो बात करू क्या

रूठ गया है जैसे स्पंदन

चेतन अवचेतन और चिंतन

मुक्ति मुझे अभिशाप बनी है

बंधन की तो बात करू क्या

जी जी कर मरता रहता हु

मर मर कर जीता रहता हु

परिभाषाये भूल गया हु

क्या है मरण अमरता है क्या

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