Friday, April 22, 2011

अहं-अहंकार

-अहं-

-मै-

हां-अहं-अपने होने का बोध

अपने होने का संकल्प।

की मैने घोषणा

और हो गया

एक से अनेक

-एकोहं बहुस्यामि-

यह जो अस्तित्व है विद्यमान

मेरे होने का प्रमाण

ये सब मुझसे है

मै इनसे नहीं

ये सब मेरे कारण है

मै इनके कारण नहीं।

मै सागर की उत्ताल तंरगों में

हहराता हूं

बहता हूं

उनचासो प्रभंजन में

मै ही बहता हूं।

मै ही अन्धकार बन लील लेता हूं जगत

और उद्भासित करता

पुन: उसे

अपनी ही किरणों के प्रकाश में।

मेरी ही शीतल चांदनी में

धरती नहाती है

तारों से मुसकाती है

मेरी ही मंद मंद

फुहार से

मलिन मुख धो लेती धरा।

मेरे अनेक रुप है

मै अभिमान हूं

स्वाभिमान हूं

घमण्ड,दर्प,अंहकार भी

ये सब मेरी शाखाएं है

इस सृजन में

इन सबका अपना स्थान

महत्व है मर्यादा है।

तुम समझ जाओगे

गहरे में डूबो

सबकी अपनी अपनी

लक्ष्मण रेखा है।

मेरी भी है

मूल रुप से

मै ही सृष्टि का कारण हूं

इसलिए विवश हूं

कहना पड रहा है

निवेदन है मेरा

दार्शनिकों।

संतो। महन्तो।

मनीषियों,महापुरुषो,

उपदेशको,विचारको

भक्तो,सत्गुरुओं,

मेरे पीछे मत पडो

मत करो मेरी चरित्र हत्या

मै संसार विनाश की जड नहीं।

मै तो सृजन का

सृष्टि का मूल हूं

मै हूं तो आप भी है

यदि समेट लिया मैने

अपने आपको

इस सृजन का

इस अस्तित्व का

क्या होगा?

कभी सोचा आपने?

अभिव्यक्ति

व्यक्ति की अभिव्यक्ति तुम,

समष्टि की सृष्टि की

शक्ति हो युक्ति हो

ज्ञान विज्ञान की

प्रगति का आधार हो तुम।

कलकल करती निर्झरिणी

विमल धार गंगा की

कान्हा की बांसुरी के

जमुनाजल प्रतिध्वनित स्वर

लयताल बध्द

संगीत की सरगम हो।

मचल जब जाती हो

सागर की उफनाती लहर बन

लहराती हो

कभी ज्वालामुखी बन

फट पडती हो

लावा उगलती हो।

क्या नहीं हो तुम

मानवीय सभ्यता की

उन्नति से अवनति तक

सृजन से विंध्वंस तक

प्रेम से घृणा

संस्कृति से विकृति तक

मूर्त भी अमूर्त भी

सगुण भी निर्गुण भी

यत्र तत्र सर्वत्र

सृजन,सिंचन,संहार हो तुम।

निर्दयी इतनी

कि जब किसी के हृदय में

शूल बन गढ जाती हो

तो कसक बन

एक नहीं सात जन्मो तक

चुभती रहती हो।

करुणामयी इतनी कि

वज्रवत कठोर मानस को

सुधा रसधार से सराबोर कर देती हो।

तुम नहीं इन्द्रजाल शब्दों का

वाणी विलास नहीं तुम

हास परिहास नहीं

तुम सृष्टि के अवतन्स मानव के

अन्तर की महाशक्ति हो।

मां सरस्वती का चरणोदक हो

शब्द ब्रम्ह के सहारे

निराकार भावों को

देती आकार तुम।

कभी तुतलाती,कभी करती अट्टहास

कभी व्यंग्य वाणों को उतार देती

मानस के अन्तर की

गहराईयों तक।

कराती कभी वीर रस पान

कभी श्रृंगार में डुबो देती तन मन प्राण

करती कभी अनावृत्त प्रकृति अंतरंग।

कभी ज्ञान विज्ञान गंभीर

तो कभी ऋ चाओं में

वेदान्त की समाधिस्थ

हो जाती साधक के समान।

कभी केशव के मुख से

मुखरित गीता का कर्मयोग

ज्ञान भक्ति तत्व ज्ञान।

कभी सूर मीरा तुलसी को जगाती तुम

बहाती भक्ति की अजस्त्र धार

कभी कबीर की निर्गुण निराकार

वाणी कल्याणी बन जाती तुम।

कभी महाकवि भूषण के छन्दो की तीक्ष्ण धार

तो कभी करुणा महादेवी की

कोमलकान्त पदावलि पंत की

तो कभी निराला की रामशक्ति पूजा बन

कभी कामायनी प्रसाद की

बिहारी के तीर तुम

वीर रस रासो चन्दबरदाई का

तो कभी हाला मधुबाला

मधुशाला बचाचन की।

क्या नहीं हो तुम

प्रताप का भाला हो

जौहर की ज्वाला हो

पिथौरा का शब्दभेदी वाण

छत्रपति शिवा की कृपाण

तेग गुरु गोविन्द की

गरजती बरसती चमकती चपला

मेघमाला में

शिखर हिमगिरी से उतरी

अष्टभुजा धारिणी

नवदुर्गा माता हो

तुम सरस्वती माता हो

बस

तुम माता हो,माता हो,माता हो

मर्यादा में बंधी

लक्ष्मणरेखा में सधी

तुम गंगा की पावनधारा हो

विष्णु चरण तरंगिणी

वेदवती

माता हो माता हो माता हो॥

Tuesday, April 19, 2011

चरैवेति चरैवेति

चरैवेति चरैवेति

चरैवेति चरैवेति

चले चलो चले चलो।

यही एक लक्ष्य है

एक लक्ष्य है यही

बढे चलो चले चलो

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

यह रास्ता अखण्ड है

यह यात्रा अनन्त है

इसका न आदि अन्त है

पडाव पंथ में है नहीं

मंजिल भी यहां कोई नहीं

यहां तो बस मार्ग पर

चलते ही रहना है

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

जब से मैं हूं चला

आज तक हूं चल रहा

अमिय से जिया नहीं

गरल से मरा नहीं

पीर में वे पीर में

धीर में अधीर में

बीच में रुका नहीं

रुका नहीं थका नहीं

मै कभी झुका नहीं

मै कभी बिका नहीं

शांति में अशांति में मै कभी डिगा नहीं

ताप में संताप में एक राह चल रहा

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

रंज हार का नहीं

जीत की खुशी नहीं

प्रलय में प्रशान्ति में

दृष्टि एक सी रही

संकटों को ठेल कर

ठौकरों से उडा

घात प्रत्याघात कर

पंथ पर चला रहा

जानता हूं मर्त्य है देह,मरुंगा सही

किन्तु यह भी जानता हूं

(जन्म-मृत्यु) जन्म और मृत्यु गीत एक साथ गा रहा

मै अजर मै अमर

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति

विनय क्या क्रोध क्या

प्रेम घृणा प्रीत क्या

शीत क्या ताप क्या

शिशिर क्या वसन्त क्या

सुकाल में अकला में

राग में विराग में

द्वंद्व में निर्द्वंद्व में

संग में साथ में

या कि अकेला चला

धरा से आसमान तक

शून्य शिखर नाप कर

चल रहा चल रहा

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

नीति क्या अनीति क्या

मैं कभी बंधा नहीं

भीति क्या अभीति क्या

मै भ्रमित हुआ नहीं

मोहपाश मुक्त मैं

यथायोग युक्त में

वेदमंत्र सूक्त के

दिव्य ज्ञान आत्मज्ञान

तत्व अनुरक्त मै

पंथ पर चल रहा

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

कर रहा आव्हान तुम्हे

आओ मेरे साथ चलो

या कि अकेले चलो

आगे चलो पीछे चलो किन्तु बस चले चलो

यही एक लक्ष्य है

चरैवेति चरैवेति-चरैवेति चरैवेति॥

Sunday, April 17, 2011

प्रतीक्षा

एकनिष्ठ साधक का ध्यान

मधु ऋ तु की मन्द बयार तुम।

सांवरी सलोनी मदभरी

रूपसी मनभावनी

सुरमई संध्या सी

वंदिनी विश्वास की

हठयोगिनी

ज्ञान विज्ञान की

दुर्लभ पहेली

अपने आपमें खोई हुई तुम॥

शान्त स्लथ

धूलभरी संध्या में

नीडों से झांकते

चहचहाते बच्चों के

नयनों की आतुरता तुम॥

श्यामल घन के भरोसे

चातक की पिपासा तुम।

जैसे सप्तस्वरों का मौनालाप

याकि सरगम में बंधी

साधना में सधी

अनुराग भरी रागिनी हो

अर्जुन के गांडीव का सर संधान

एकाग्र निर्मिमेष लक्ष्य भेद।

वन विजन के एकान्त सी

तुम चिन्ता की विकल रेख

क्षितिज के उस पार रही देख।

जैसे अम्बर में खिंची

इन्द्रधनुषी चाप

थपथपाती स्कंध धरती का

और हो जाती लुप्त एकाएक।

नयनों के मूक निमंत्रण सी

ज्ञात अज्ञात के आलिंगन सी

चुपचाप मौन

ध्यानस्थ योगिनी सी

तुम कौन?

और सहसा

उसके उठे अधखुले नयन

मंद मंद स्वर में बोली वह

मै प्रतीक्षा हूं॥

अभिषेक

तुम तट पर बैठे गीत प्रीत के गाते,

मै तूफानों से प्यार किया करता हूं।

तुमको उजियारे ने हर दम भरमाया,

मुझको तो अंधियारा पथ पर ले आया,

तुम दिन में जगकर देखा करते सपने,

मै स्वप्ों को साकार किया करता हूं॥

जब बढ जाती है प्यास कि जलता जीवन,

मै रच देता उस युग में सागर मंथन,

तुम मर मर जाते अमृत पी पीकर भी,

मै पी जाता हूं गरल जिया करता हूं॥

तुम शून्य गगन में रहे खोजते जिसको,

मै वही स्वयं हूं भला खोजता किसको,

तुम मन्दिर मस्जिद भटके करने पूजन,

मै खुद का ही अभिषेक किया करता हूं॥