-अहं-
-मै-
हां-अहं-अपने होने का बोध
अपने होने का संकल्प।
की मैने घोषणा
और हो गया
एक से अनेक
-एकोहं बहुस्यामि-
यह जो अस्तित्व है विद्यमान
मेरे होने का प्रमाण
ये सब मुझसे है
मै इनसे नहीं
ये सब मेरे कारण है
मै इनके कारण नहीं।
मै सागर की उत्ताल तंरगों में
हहराता हूं
बहता हूं
उनचासो प्रभंजन में
मै ही बहता हूं।
मै ही अन्धकार बन लील लेता हूं जगत
और उद्भासित करता
पुन: उसे
अपनी ही किरणों के प्रकाश में।
मेरी ही शीतल चांदनी में
धरती नहाती है
तारों से मुसकाती है
मेरी ही मंद मंद
फुहार से
मलिन मुख धो लेती धरा।
मेरे अनेक रुप है
मै अभिमान हूं
स्वाभिमान हूं
घमण्ड,दर्प,अंहकार भी
ये सब मेरी शाखाएं है
इस सृजन में
इन सबका अपना स्थान
महत्व है मर्यादा है।
तुम समझ जाओगे
गहरे में डूबो
सबकी अपनी अपनी
लक्ष्मण रेखा है।
मेरी भी है
मूल रुप से
मै ही सृष्टि का कारण हूं
इसलिए विवश हूं
कहना पड रहा है
निवेदन है मेरा
दार्शनिकों।
संतो। महन्तो।
मनीषियों,महापुरुषो,
उपदेशको,विचारको
भक्तो,सत्गुरुओं,
मेरे पीछे मत पडो
मत करो मेरी चरित्र हत्या
मै संसार विनाश की जड नहीं।
मै तो सृजन का
सृष्टि का मूल हूं
मै हूं तो आप भी है
यदि समेट लिया मैने
अपने आपको
इस सृजन का
इस अस्तित्व का
क्या होगा?
कभी सोचा आपने?
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