Sunday, April 24, 2011

श्मशान

यों तो कई बार

श्मशान गया हूं

अपने परायों को

चिता को समर्पित करने

स्वर्ग अथवा नर्क

कदाचित ही किसी ने देखा हो,

किन्तु पृथ्वी पर

एक स्थान ऐसा है अवश्य

जहां पंहुच कर मनुष्य

रह जाते केवल मनुष्य।

भौतिक जीवन की दार्शनिकता को लांघकर

वह आध्यात्मिक उंचाई छूने लगता है।

चाहे यह वैराग्य वेदान्त

कुछ देर का ही क्यो न हो

किन्तु हां

श्मशान में पंहुचकर ऐसा ही होता है।

श्मशान में न जाने छुपी

चुम्बकिय शक्ति एक

कि व्यक्ति यहां पंहुच कर

अपने आप

निर्वसन हो जाता है

अन्दर ही अन्दर,अपने

जीवन में झांकने के लिए

कई बार जाने अनजाने,

मै श्मशान से मौनालाप करता रहा,

किन्तु आज एक कोने में बैठा,

श्मशान से एक प्रश्न पुछ बैठा,

मित्र यो तो हम मिले है कई बार,

किन्तु मौन तोडा है मैने प्रथम बार।

मित्र यह एक ही क्रियाजो तुम,कर रहे

बीत गए कितने काल,

पहले स्वयं जलते हो

फिर जलाते हो,

ऊ ब नहीं जाते हो?

मरघट कुछ देर रहा मौन,

फिर हड्डियों का खडखडाता ढेर,

दूर कर चेहरे से,

मुंह खोला

और बोला,

सच कहते हो

दिन में धधकता हूं बाहर,

शवों को जलाता हूं

फूंकता रहता हूं

रात को

अन्दर ही अन्दर

धधकता रहता हूं।

मित्र उठा था यही प्रश्न

मेरे मन में भी एक बार

किससे पूछता इसका हल

नहीं था कोई पास मेरे।

मै स्वयं ही खो गया,

डूब गया गहरे में,

मिल गया हल,

हो गया समाधान।

सुनोगे?

मैने कहा हां

और श्मशान ने थोडा निकट खिसक कर,

आंख बन्द कर

और दाग दिए कुछ प्रश्न-

एक एक कर।

बोला,

हहराती भीषण लहरों के बोझ से दबा

यह शान्त समन्दर कभी ऊ बा है?

मै कुछ बोलता उससे पहले ही

वह आगे बढ गया।

यह हिमगिरी शिखर

अहर्निश सूर्य किरणों को पी पीकर

पिघलाता बर्फ कभी ऊ बा है?

दावानल से बारबार

राख होता वन

कभी ऊ बा है?

उगता है हरा भरा होता है,फिर सूखता है,जलता है,

क्या कभी ऊ बा है?

कभी बाढ में उफनाती

कभी कृषगात होती,

कूल कगारों को तोडती,

फिर कभी सूख कर रेत में सो जाती,

नदी क्या कभी ऊ बी है।

नहीं कोई नहीं ऊ बता।

श्मशान थोडा और निकट आकर बोला

रहस्य की एक बात सुनोगे?

शायद तुम्हे याद हो न हो-मुझे याद है

तुम कितनी ही बार यहां आए हो

मुझमें समाये हो।

क्या तुम कभी इस आवागमन से ऊ बे हो?

यह सृष्टि का सत्य है,

यही सृजन का धर्म है

यही सनातन क्रम है

इसे चलने दो

इसका विचार मत करो

तुम पुन: मेरे पास आओगे

मुझमें समाओगे

कहीं ओर चले जाओगे-उबना कैसा

सृजन की इिस स्वाभाविकता को

सहजता से जियो

ऊ बना कैसा?

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