व्यक्ति की अभिव्यक्ति तुम,
समष्टि की सृष्टि की
शक्ति हो युक्ति हो
ज्ञान विज्ञान की
प्रगति का आधार हो तुम।
कलकल करती निर्झरिणी
विमल धार गंगा की
कान्हा की बांसुरी के
जमुनाजल प्रतिध्वनित स्वर
लयताल बध्द
संगीत की सरगम हो।
मचल जब जाती हो
सागर की उफनाती लहर बन
लहराती हो
कभी ज्वालामुखी बन
फट पडती हो
लावा उगलती हो।
क्या नहीं हो तुम
मानवीय सभ्यता की
उन्नति से अवनति तक
सृजन से विंध्वंस तक
प्रेम से घृणा
संस्कृति से विकृति तक
मूर्त भी अमूर्त भी
सगुण भी निर्गुण भी
यत्र तत्र सर्वत्र
सृजन,सिंचन,संहार हो तुम।
निर्दयी इतनी
कि जब किसी के हृदय में
शूल बन गढ जाती हो
तो कसक बन
एक नहीं सात जन्मो तक
चुभती रहती हो।
करुणामयी इतनी कि
वज्रवत कठोर मानस को
सुधा रसधार से सराबोर कर देती हो।
तुम नहीं इन्द्रजाल शब्दों का
वाणी विलास नहीं तुम
हास परिहास नहीं
तुम सृष्टि के अवतन्स मानव के
अन्तर की महाशक्ति हो।
मां सरस्वती का चरणोदक हो
शब्द ब्रम्ह के सहारे
निराकार भावों को
देती आकार तुम।
कभी तुतलाती,कभी करती अट्टहास
कभी व्यंग्य वाणों को उतार देती
मानस के अन्तर की
गहराईयों तक।
कराती कभी वीर रस पान
कभी श्रृंगार में डुबो देती तन मन प्राण
करती कभी अनावृत्त प्रकृति अंतरंग।
कभी ज्ञान विज्ञान गंभीर
तो कभी ऋ चाओं में
वेदान्त की समाधिस्थ
हो जाती साधक के समान।
कभी केशव के मुख से
मुखरित गीता का कर्मयोग
ज्ञान भक्ति तत्व ज्ञान।
कभी सूर मीरा तुलसी को जगाती तुम
बहाती भक्ति की अजस्त्र धार
कभी कबीर की निर्गुण निराकार
वाणी कल्याणी बन जाती तुम।
कभी महाकवि भूषण के छन्दो की तीक्ष्ण धार
तो कभी करुणा महादेवी की
कोमलकान्त पदावलि पंत की
तो कभी निराला की रामशक्ति पूजा बन
कभी कामायनी प्रसाद की
बिहारी के तीर तुम
वीर रस रासो चन्दबरदाई का
तो कभी हाला मधुबाला
मधुशाला बचाचन की।
क्या नहीं हो तुम
प्रताप का भाला हो
जौहर की ज्वाला हो
पिथौरा का शब्दभेदी वाण
छत्रपति शिवा की कृपाण
तेग गुरु गोविन्द की
गरजती बरसती चमकती चपला
मेघमाला में
शिखर हिमगिरी से उतरी
अष्टभुजा धारिणी
नवदुर्गा माता हो
तुम सरस्वती माता हो
बस
तुम माता हो,माता हो,माता हो
मर्यादा में बंधी
लक्ष्मणरेखा में सधी
तुम गंगा की पावनधारा हो
विष्णु चरण तरंगिणी
वेदवती
माता हो माता हो माता हो॥
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