एकनिष्ठ साधक का ध्यान
मधु ऋ तु की मन्द बयार तुम।
सांवरी सलोनी मदभरी
रूपसी मनभावनी
सुरमई संध्या सी
वंदिनी विश्वास की
हठयोगिनी
ज्ञान विज्ञान की
दुर्लभ पहेली
अपने आपमें खोई हुई तुम॥
शान्त स्लथ
धूलभरी संध्या में
नीडों से झांकते
चहचहाते बच्चों के
नयनों की आतुरता तुम॥
श्यामल घन के भरोसे
चातक की पिपासा तुम।
जैसे सप्तस्वरों का मौनालाप
याकि सरगम में बंधी
साधना में सधी
अनुराग भरी रागिनी हो
अर्जुन के गांडीव का सर संधान
एकाग्र निर्मिमेष लक्ष्य भेद।
वन विजन के एकान्त सी
तुम चिन्ता की विकल रेख
क्षितिज के उस पार रही देख।
जैसे अम्बर में खिंची
इन्द्रधनुषी चाप
थपथपाती स्कंध धरती का
और हो जाती लुप्त एकाएक।
नयनों के मूक निमंत्रण सी
ज्ञात अज्ञात के आलिंगन सी
चुपचाप मौन
ध्यानस्थ योगिनी सी
तुम कौन?
और सहसा
उसके उठे अधखुले नयन
मंद मंद स्वर में बोली वह
मै प्रतीक्षा हूं॥
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