दीपशिखा रातभर
अश्रु बहाती रही,
कोई द्वंद्व् है,
कि कोई वेदना सता रही।
आर पार तिमिर के
देख रही नयन फार
संकेत कर रही
हाथ उठा बार बार
जनम जनम का जो मीत
उसको बुलाती रही॥
अपनी ही आग में,
अपने ही प्रियतम को,
फूंकना पडेगा मुझे
अपने ही प्यार को
यही सोच सोचकर,
तिलमिलाती रही॥
समस्त सृष्टि सो गई,
अपने सुखद स्वप् में,
जाग रही दीपशिखा,
किन्तु अपनी अगन में
मानो विरहागि् को
स्वयं ही बुझाती रही॥
तभी शलभ आ गया,
वातायन लांघ कर
आलिंगन देने लगा
फूंकने लगा पंख एक एक कर
फिर प्रियतम को शव लिए गोद में
रातभर दीपशिखा रोती रही॥
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