कालातीत अदृश्य हाथों ने
सार दिया तिलक लाल,
आलोकित हुआ भाल,
या कि अंकुर फूट पडा,
मृत्यु पर जीवन की विजय का,
या कि फिर प्राची के कपोल पर,
मल दी हो रोली किसी मनचले ने
या फिर फागुन की उडती गुलाल।
प्रकृति का मदिर मंद हास,
या कि यौवन के आगमन की,
सुनकर पदचाप
कोई मुग्धा लजाई हो।
कि सुषमा हुई साकार
या सविता के स्वागत हित
पूजा का सजा थाल।
या कि त्याग अनुरागमयी
ज्ञान भक्ति कर्म की
अरुण पताका
फहराई अदृश्य ने।
हो माथे पर बिंदिया सौभाग्य की
या कि सिन्दूर भरी
मांग सुहागिन की।
किसी देवालय का शिखर हो
या सौभाग्य सूर्य मनुज का
या सृजन की प्रथम किरण
या प्रकृति की खुली कोंख
देती संदेश बाल रवि के जन्म का।
नीरभ्र नीलाकाश कर ज्योतित
छेडती भैरवी के मधुर मादक स्वर
या कि निर्धूम धधकती वही ज्वाल
या कि माणिक भरी मंजूषा विशाल
सृष्टि के भाग्योदय का आलेख
या कि बिखरा पिंग पराग
प्राची के आनन पर अवगुण्ठन सी
महाकाश की बाहों में आबध्द
ओ महाभाग
अम्बर का उदर चीर
उतर कर आई हो
कौन हो क्या हो
किसके हृदय की अभिलाषा हो
किस तत्व की परिभाषा हो
ओ रहस्यमयी जिज्ञासा।
तुम जैसे चैतना की ज्योति का
सनातन जागरण
हुआ आत्म प्रकाश
और तब जैसे
चटकी गुलाब की कली
खिली और वह बोली
मै ऊषा हूं
हां ऊषा हूं ऊषा
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